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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

आत्मनिर्माण कैसे हो?

आत्मनिर्माण का तात्पर्य है, अपने स्वभाव या चरित्र की त्रुटियोंको दूर करना तथा निर्भयता, सत्यता, प्रेम, पवित्रता, प्रसन्नता तथा सबमें आत्मभाव देखना, अपनेको शरीर नहीं आत्मा समझना और तदनुकूल उच्च देवोचित आचरण करना, अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक स्थितिको ऊँचा उठाना और अपनेको एक आदर्श नागरिक बनाना इत्यादि। आत्मनिर्माण एक लम्बी योजना है, जिसका ध्येय उत्तरोत्तर अभिवृद्धि करना है। यह एक जीवन-दर्शन है, जो आशावादी दृष्टिकोण धारण कर सदा ऊँचा उठने, सर्वांगीण उन्नतिमें विश्वास करता है। आत्म विकास का इच्छुक निरन्तर आगे बढ़ता हुआ एक यात्री है। उसके जीवन में ठहराव नहीं, उत्तरोत्तर प्रगति है। आत्मविश्वासी मनुष्यमें बड़ा सामर्थ्य होता है, उसका आत्मविश्वास शक्ति और प्रतिभा का निर्माण कर सकता है और उलटा होकर ध्वंस भी। अच्छे का निर्माण करना तथा बुरेका ध्वंस-यही अपनी शक्तिका सदुपयोग कहलाता है। स्मरण रखिये, प्रत्येक नव प्रभात एक नयी उन्नति की सम्मावनाएँ लानेवाला है।

आत्म विकास के साधन

आत्मनिर्माण चार प्रकारसे होना चाहिये- (१) मानवशरीरकी पूर्णता एवं नीरोगता द्वारा, (२) अपनी भावनाओं (Feeling) पर विजय-प्राप्ति, (३) बुद्धिका विकास और (४) आत्मज्ञान। व्यक्तित्वके इन चारों पक्षोंका उत्तरोत्तर विकास होना अनिवार्य है। शरीर वह साधन है, जिसके द्वारा आत्म-प्रतीति होती है। शरीरको चाहिये कि वह रोगोंको उसी प्रकार त्याग दे, जैसे हम मनसे अपवित्रता दूर कर देते हैं।

शरीरको निर्विकार, स्वस्थ, सशक्त रखकर ही हम इस दिशामें आगे बढ़ सकते है। हमारे प्राचीन योगी, ऋषि-मुनियोंने शरीरको परमेश्वरका पवित्र मन्दिर माना है। शरीर-रक्षाके हेतु हमारा यह पवित्र कर्तव्य हो जाता है कि हम पर्याप्त परिश्रम करें। शारीरिक एवं श्वास-प्रश्वासके व्यायाम करें। बिना व्यायाम हमारे अंग निर्बल एवं अशक्त होकर पंगु बनते हैं। पवित्र जलवायु में निवास करना तथा शुद्ध दूध, छाछ, फलोंका रस, पौष्टिक भोजन अधिक मात्रामें लेने चाहिये। जहाँ हम सात्त्विक पदार्थोंको ग्रहण करें, वहाँ हमें चाहिये कि अभक्ष्य पदार्थ, अनिष्टकारी व्यसन, धूम्रपान, मद्य, सिनेमा इत्यादिसे अवश्य बचें। संयम रखें। रोगी अवस्थामें हमारा शरीरके प्रति कर्तव्य और भी बढ़ जाता है। उपवास, अल्पाहार या रसाहार द्वारा हमें अन्तरंग-शुद्धि करनी चाहिये। प्रकृतिके मार्गपर चलकर हम शरीरको निर्विकार अवस्थामें रख सकते हैं।

आत्मविकासका द्वितीय साधन अपनी मनोभावनाओं पर विजय है। हमारी भावनाएँ दो प्रकार की होती हैं। कुप्रवृत्तियों-इस वर्गमें हमारी वासना, क्रोध, घृणा, द्वेष, लोभ, ईर्ष्या, अभिमान, तृष्णा, निर्दयता, निराशा इत्यादि अनिष्ट भावनाएँ सम्मिलित है। सतत प्रयत्न एवं अभ्यास के द्वारा इन अनिष्टकारी प्रवृत्तियोंका दमन करना चाहिये। इनसे शंकाका सरल उपाय यह है, सद्वृत्तियों (Virtues) का विकास। सद्वृत्तियोंका विकास होते ही अनिष्टभाव स्वयं दूर हो जायेंगे। प्रकाशके सम्मुख अन्धकार किस प्रकार टिक सकता है? ज्यों-ज्यों हम अपने तुच्छ अहंसे मुक्त होते जाते हैं, त्यों-त्यों हमारे अंदर एक प्रकाशमय बलशालिनी चेतनाका विकास होता जाता है।

संसारकी आत्माओ! तुम्हारा वासनाओंसे कोई सरोकार नहीं है। तुम्हें धैर्य, उत्साह, प्रेम, उदारता, दानशीलता, कृतज्ञता, विनम्रता, न्याय, सत्य वचन इत्यादि दिव्य भावोंका विकास करना है। तुम उच्चभावोंके लिये निर्मित हुए हो। तुम देवत्वके एक अंश हो। अनिष्ट भावसे सावधान! यह एक ऐसी अग्रि है जो अंदर-ही-अंदर घुनकी तरह तुम्हें खोखला कर देगी!

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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